संसद में अमित शाह ने नेहरू की चिट्ठी पढ़ते लगाया गंभीर आरोप, कांग्रेस को खूब सुनाया, क्या वाकई कश्मीर समस्या की जड़ नेहरू हैं? पढ़ें...

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रिपोर्ट राजेश कुमार यादव

नई दिल्ली

कश्मीर पर जवाहर लाल नेहरू की दो बड़ी गलतियों के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के दावे पर बवाल मच गया है। कांग्रेस पार्टी शाह के दावे को सरासर निराधार बता रही है। पार्टी के कई नेताओं ने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट के जरिए शाह के दावे का खंडन किया है। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने शाह को चंद्रशेखर दासगुप्ता की पुस्तक 'वॉर एंड डिप्लोमेसी इन कश्मीर' पढ़ने की सलाह दी। वहीं, एक अन्य वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी ने कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के बाद नेहरू को लिखी भारतीय सेना के तत्कालीन प्रमुख फ्रांसिस रॉबर्ट रॉय बूचर की चिट्ठी का हवाला दे डाला। गृह मंत्री ने बुधवार को लोकसभा में कहा था कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल के दौरान हुए दो 'बड़े ब्लंडर' का खामियाजा कश्मीरियों को वर्षों तक भुगतना पड़ा। जम्मू कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023 और जम्मू कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023 पर सदन में हुई चर्चा का जवाब देते हुए उनका कहना था कि नेहरू की ये दो गलतियां 1947 में आजादी के कुछ समय बाद पाकिस्तान के साथ युद्ध के समय संघर्ष विराम करना और जम्मू-कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाने की थीं। गृह मंत्री ने कहा कि अगर संघर्ष विराम नहीं हुआ होता तो पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर अस्तित्व में नहीं आता।

शाह ने अपने भाषण में कहा कि नेहरू ने कश्मीर पर अपनी गलतियां खुद ही स्वीकार की थीं। उन्होंने कहा कि नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को चिट्ठी लिखकर कहा, संयुक्त राष्ट्र के साथ अपने अनुभव के आधार पर मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि वहां (यूएन) से किसी को संतोषजनक फैसले की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। मुझे लगा कि (पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम) का फैसला अच्छा था, लेकिन यह सही तरीके से लागू नहीं हुआ। हम थोड़ा बेहतर कर सकते थे। कई बार मुझे लगता है कि हमने जो किया वो गलती थी।

बात नेहरू के स्वीकारोक्ति की हुई तो 24 जुलाई, 1952 को कश्मीर मुद्दे पर संसद में दिए उनके भाषण पर भी गौर कर लेते हैं। वो कहते हैं, दिसंबर में जब हमें पता चला कि हम पाकिस्तानी सेना का सामना कर रहे हैं, हमने महसूस किया कि मामला उससे भी बढ़ जाने की आशंका है जितने की हमने कल्पना की थी। उससे भारत-पाकिस्तान के बीच पूरा युद्ध छिड़ जाने की आशंका है। फिर वो कहते हैं, जब हमने देखा कि इससे दोनों पक्षों के बीच पूर्ण युद्ध छिड़ जाने की आशंका है तो हमने इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में पेश करने का निश्चय किया। यह मेरे विचार में दिसंबर 1947 में हुआ।

24 जुलाई, 1952 के संसद में दिए अपने भाषण में पीएम नेहरू कहते हैं, यह उत्तर संयुक्त राष्ट्र आयोग जो कि 1948 में यहां आया था, के संकल्पों के रूप में दिया गया जब कि उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना के कश्मीर में होने के कारण एक नई स्थिति उत्पन्न हुई है। उन्होंने ऐसा कहा। इस वक्तव्य से कुछ ही समय पहले पाकिस्तान सरकार दृढ़ता से इस बात को इनकार करती रही कि उसकी सेनाएं कश्मीर में हैं। एक निराधार बात को तथा साफ झूठ को बार-बार दुहराने की वह एक अजबी घटना थी। संयुक्त राष्ट्र संघीय आयोग भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा। वो आगे कहते हैं, 31 दिसंबर, 1948 को दोनों पक्षों ने युद्ध बंद करना मान लिया। उस समय से किसी बड़े पैमाने पर कोई सैनिक कार्यवाही नहीं हुई है।

इस तरह, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय भाषण में कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने और युद्ध विराम होने, दोनों का खुद ही जिक्र किया है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में मामले को ले जाने की बात बताते हुए उन्होंने 'हमने' शब्द का प्रयोग किया है, 'मैंने' नहीं। स्वाभाविक है किसी भी सरकार का मुखिया कभी यह नहीं कहता है कि इतने बड़े मुद्दे पर कोई फैसला उसका व्यक्तिगत था। लेकिन यह भी सच है कि सरकार के मुखिया के तौर पर फैसले का श्रेय प्रधानमंत्री को ही जाता है- चाहे वह फैसला सही परिणाम लेकर आए या फिर भविष्य में गलत साबित हो। इसलिए अगर कोई कहता है कि कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का फैसला अकेले नेहरू का नहीं बल्कि उनकी कैबिनेट का था, तो दरअसल यह फितूर के सिवा कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री के तौर पर कैबिनेट का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। इसलिए, सरकार के किसी भी फैसले को मूलतः प्रधानमंत्री से ही जोड़कर देखा जाता है।

खैर बात करते हैं गृह मंत्री शाह के दावे की। उन्होंने कहा है कि अगर कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले ही जाना था तो यूएन चार्टर 51 के तहत ले जाते, न कि चार्टर 35 के तहत। तो आइए समझते हैं कि यूएन चार्टर 51 और 35 में क्या अंतर है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 35 कहता है,  यदि किसी विवाद के पक्षकार आपसी बातचीत से मामले को सुलझाने में सक्षम नहीं हैं और विवाद अंतरराष्ट्रीय शांति को खतरे में डाल सकता है, तो संयुक्त राष्ट्र का कोई भी सदस्य उस विवाद को सुरक्षा परिषद या महासभा में ले जा सकता है। वहीं, यूएन चार्ट का आर्टिकल 51 में पक्षकार देश को अपने ऊपर हमले का बचाव करने की छूट मिलती है। यह चार्टर कहता है, संयुक्त राष्ट्र चार्टर कोई भी देश के आत्मरक्षा के अधिकार को नहीं छीन सकता, जब तक कि सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठा लेती। यदि किसी संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश पर सशस्त्र हमला होता है, तो वह देश व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से खुद का बचाव कर सकता है। हालांकि, इस अधिकार का प्रयोग करते हुए सदस्य देशों द्वारा किए गए उपायों को तुरंत सुरक्षा परिषद को रिपोर्ट करना होगा। इससे सुरक्षा परिषद के अधिकार और जिम्मेदारी पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जो उसे किसी भी समय अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने या बहाल करने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने के लिए अधिकृत करता है। ऊपर के दोनों चार्टर से साफ है कि चार्टर 35 जहां देशों को विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का मौका देता है। वहीं, चार्टर 51 हमले की स्थिति में देशों को खुद को बचाने का अधिकार देता है, जब तक कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद हस्तक्षेप नहीं करती है। केंद्रीय गृह मंत्री का कहना है कि चार्टर 35 का रास्ता अपनाकर नेहरू सरकार ने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ समझौता करने का बोझ खुद से अपने ऊपर ही ले लिया। यह सच भी है कि 31 जनवरी, 1948 की रात में युद्ध विराम का प्रस्ताव भी भारत की तरफ से ही गया। इसका जिक्र हम आगे करेंगे। बहरहाल, चार्टर 51 के तहत भारत ने संयुक्त राष्ट्र से शिकायत की होती तो भारत के पास हमेशा के लिए अपने बचाव में पाकिस्तान को किसी भी हद तक सबक सिखाने का कानूनी अधिकार बना रहता।

अब बात करतें हैं शाह के दूसरे आरोप की कि पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम का फैसला उस वक्त लिया गया जब भारतीय सेना भारी पड़ रही थी और पाकिस्तानी इलाके में आगे बढ़ रही थी। ध्यान रहे कि 1947-48 का भारत-पाकिस्तान युद्ध आधुनिक सैन्य इतिहास में एक अनूठा युद्ध था। यह एकमात्र ऐसा युद्ध था जिसमें दोनों सेनाओं की कमान ब्रिटिश जनरलों के हाथों में थी। भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ जनरल सर फ्रांसिस रॉबर्ट रॉय बुचर और उनके पाकिस्तानी समकक्ष जनरल डगलस ग्रेसी थे। भारत और पाकिस्तान में सभी तीनों सेवाओं की कमान ब्रिटिश अधिकारियों के हाथों में थी। बुचर ने युद्ध के चार सप्ताह के अंदर ही 17 नवंबर, 1947 को रक्षा मंत्री बलदेव सिंह से कहा, हमें कहना पड़ेगा कि हमें गोला-बारूद और हथियारों की भारी कमी हो रही है। यह (युद्ध) हम पर भारी पड़ रहा है। मुझे यकीन है अब समय आ गया है कि पूरी स्थिति की राजनीतिक और सैन्य दोनों कोणों से समीक्षा करें और दीर्घकालिक नीति के मुताबिक निर्णय लें। दिलचस्प बात यह है कि रिटायरमेंट के बाद भारत दौरे पर आए बुचर ने जीवनी लेखक बीआर नंदा से विस्तार से बातचीत की थी। उन्होंने कश्मीर मामले पर नंदा से कहा, पंडितजी ने अपने एक पत्र में लिखा था- मुझे नहीं पता कि संयुक्त राष्ट्र क्या प्रस्ताव करने जा रहा है। वे युद्धविराम का प्रस्ताव रख सकते हैं और इसकी शर्तें क्या होंगी, मुझे नहीं पता। अगर युद्धविराम नहीं होने वाला है, तो मुझे ऐसा लगता है कि हमें पाकिस्तान में आगे बढ़ने के लिए मजबूर किया जा सकता है और इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

बूचर कहते हैं कि पीएम नेहरू ने उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए और उन्होंने पीएम को बताया कि सेना पूरी तरह तैयार है। लेकिन रक्षा मंत्री ने बूचर को कॉल करके युद्धविराम करने को कहा। बूचर ने इंटरव्यू में बताया, मैंने अपने प्रधानमंत्री को आश्वासन दिया कि किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए सभी कदम उठाए जाएंगे। मेरे लिए अगली घटना तब हुई, जब सरदार बलदेव सिंह ने मुझे फोन किया और कहा, आगे बढ़ें।' मैंने पूछा, 'किसके साथ आगे बढ़ें? उन्होंने उत्तर दिया, युद्धविराम के साथ आगे बढ़ें।' मेरा जवाब था, ठीक है, यह मेरे लिए एक कमांडर-इन-चीफ के रूप में निपटने के लिए एक बहुत ही मुश्किल काम है और आपके पास देश में भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग है। बूचर कहते हैं कि रक्षा मंत्री ने आखिरी फैसला दिया है कि पाकिस्तान के साथ युद्धविराम करना है। वो कहते हैं, इसलिए मैंने पाकिस्तान में कमांडर-इन-चीफ जनरल ग्रेसी (पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष) को भेजने के लिए एक संदेश तैयार किया। ...संदेश को जानबूझकर छोटा रखा गया था और केवल यह कहा गया था कि मेरी सरकार का मानना है कि कश्मीर में जीवन और हर चीज के नुकसान के साथ पागलपन भरे काम और जवाबी कार्रवाइयों से कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। मुझे 31 दिसंबर, 1948 की आधी रात से एक मिनट पहले या उसके आसपास भारतीय सैनिकों को गोलीबारी बंद करने का आदेश देने के लिए अपनी सरकार का अधिकार था।

युद्धविराम का फैसला पीएम नेहरू का ही था, इसमें कोई संदेह नहीं। बूचर बताते हैं, संदेश बहुत सावधानी से तैयार किया गया था और इसे जनरल ग्रेसी को व्यक्तिगत' संबोधित किया गया था। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, मैं इसे भेजने से पहले लोकसभा में पंडित नेहरू के पास ले गया और उन्हें दिखाया। उन्होंने इसे दो या तीन बार पढ़ा, इस पर हस्ताक्षर किए और मुझे इसे भेजने के लिए कहा। उन्होंने अपनी फाइल के लिए एक कॉपी रख ली। संदेश भेज दिया गया। मैं जानता था कि अगर जनरल ग्रेसी को समझ में आया कि पंडित नेहरू ने संदेश को मंजूरी दी है, तो वह तुरंत अपने प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को सूचित करेंगे। भारत सरकार की अनुमति से मैं पाकिस्तान के सेना मुख्यालय को फोन कर सकता था। मैंने इस अनुमति का इस्तेमाल जनरल ग्रेसी को यह सूचित करने के लिए किया कि मेरे संकेत पर पंडित नेहरू की सहमति है। बुचर ने इंटरव्यू में आगे बताया कि युद्धविराम के फैसले के बारे में संयुक्त राष्ट्र को भी बताया गया। उन्होंने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि आयोग को उससे पहले युद्धविराम संकेत के बारे में कुछ पता था।' गृह मंत्री अमित शाह ने बुधवार को लोकसभा में कहा अगर संघर्ष विराम नहीं हुआ होता तो पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके) अस्तित्व में नहीं आता। शाह के इन बयानों का विरोध करते हुए कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दलों के सदस्यों ने सदन से वाकआउट किया। जब शाह ने कहा कि नेहरू ने खुद माना था कि यह गलती थी, लेकिन मैं मानता हूं कि यह ब्लंडर था तो बीजू जनता दल (बीजेडी) सांसद भर्तृहरि मेहताब ने टिप्पणी की। बीजेडी सांसद ने कहा कि इसके लिए 'हिमालयन ब्लंडर (विशाल भूल)' का प्रयोग किया जाता है और गृह मंत्री चाहें तो इसका भी इस्तेमाल कर सकते हैं।


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