राजेश कुमार यादव की कलम से
भारतीय शोधकर्ताओं ने ताजा अध्ययन में इसका खुलासा किया है। उनका कहना है कि मरीज की गर्दन देखकर डॉक्टर एक संभावना लगा सकते हैं और जरूरी चिकित्सा जांच कर बीमारी की समय रहते पहचान कर सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, टाइप-2 मधुमेह रोगियों में गर्दन काली पड़ती है, जिसे एकैनथोसिस निग्रीकैन्स कहा जाता है।
गर्दन को देख मरीज में हेप्टिक फैट और फाइब्रोसिस के जोखिम का आसानी से पता लगाया जा सकता है। इसे क्लिनिकल संकेत के तौर पर देखा जा सकता है। भारत के मरीजों में एकैनथोसिस निग्रीकैन्स इसलिए अहम है क्योंकि यहां के मरीजों में इंसुलिन रेसिस्टेंस और कम उम्र में मधुमेह के मामले बहुत हैं, जिसकी मुख्य वजह खानपान और जीवनशैली में आए बदलाव हैं।
ऐसे निकाला निष्कर्ष
अध्ययन दिल्ली एम्स, मधुमेह फाउंडेशन, राष्ट्रीय राष्ट्रीय मधुमेह मोटापा और कोलेस्ट्रॉल फाउंडेशन (एनडीओसी) और फोर्टिस सी-डीओसी अस्पताल के विशेषज्ञों ने मिलकर किया है, जिसे चर्चित मधुमेह विशेषज्ञ डॉ. अनूप मिश्रा की निगरानी में किया गया। अध्ययन में टाइप-2 मधुमेह ग्रस्त 150 मरीजों को लिया गया जिनकी गर्दन की त्वचा काली पड़ी है। वहीं, 150 ऐसे मधुमेह मरीजों को लिया गया जिन्हें काली त्वचा की शिकायत नहीं है। इसके बाद दोनों समूह के बीच तुलनात्मक अध्ययन किया गया।
इंसुलिन रेसिस्टेंस का असर है काली गर्दन
मधुमेह विशेषज्ञ डॉ. अनूप मिश्रा ने बताया कि मोटी, गाढे रंग और वेल्वेट जैसी दिखने वाली ऐसी त्वचा आम तौर पर गर्दन के पिछले हिस्से में पाई जाती है। हालांकि, कांख, कोहनी, घुटने और पेट व जांघ के बीच भी ऐसी त्वचा देखने को मिल सकती है, लेकिन गर्दन के पीछे ऐसी त्वचा उन्हीं में देखने को मिलती है जिनमें इंसुलिन रेसिस्टेंस होते हैं। उन्होंने बताया कि इस अध्ययन में एकैनथोसिस निग्रीकैन्स और हेपेटिक स्टेटोसिस के अलावा फाइब्रोसिस (लिवर के नुकसान के बारे में जानकारी देने वाले संकेत) के बीच के संबंध का पता चला है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि टाइप-2 मधुमेह रोगियों में गर्दन की ऐसी त्वचा लिवर सेल को हुए नुकसान (फाइब्रोसिस) के जोखिम का संकेत हो सकता है।