सेक्युलरिज्म की भ्रामक अवधारणा, 'धर्म एवं संविधान' तथा 'धर्म एवं सत्य' में परस्पर विरोध न होकर सहयोग का भाव निहित

A G SHAH
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रिपोर्ट राजेश कुमार यादव

पुणे

पिछले दिनों पुणे में एक अदालत के भवन की आधारशिला रखते हुए 'भूमि-पूजन' समारोह के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभय एस. ओका ने कहा कि न्यायालय-परिसर में आयोजित किसी भी कार्यक्रम में पूजा-अर्चना या दीप-प्रज्वलन जैसे अनुष्ठान बंद कर देने चाहिए। उनके मतानुसार न्यायालय के किसी भी कार्यक्रम के शुभारंभ से पूर्व संविधान की प्रस्तावना की प्रति के समक्ष सिर झुकाकर पंथनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे पहले सेवानिवृत्त न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने भी कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय के ध्येय-वाक्य 'यतो धर्मस्ततो जयः' (जहां धर्म है, वहां जय है) को बदल देना चाहिए, क्योंकि सत्य ही संविधान है, जबकि धर्म सदा सत्य नहीं होता। उन्होंने यहां तक प्रश्न उठाया कि जब अन्य सभी उच्च न्यायालयों और राष्ट्रीय संस्थानों में आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय का आदर्श वाक्य भिन्न क्यों है?

सामान्यतः ऐसे तर्कों के मूल में या तो रिलीजन, मजहब एवं संप्रदाय आदि को धर्म का पर्याय मानने की भूल है या सेक्युलरिज्म की भ्रामक एवं मिथ्या अवधारणा है। 

सेक्युलरिज्म' मूलतः भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं था। इसे आपातकाल के दौरान 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से सम्मिलित किया गया था, जब पूरा विपक्ष जेल में था। संविधान की मूल प्रति में शताब्दियों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपरा एवं इतिहास को रेखांकित करने के लिए 22 चित्र थे, जिनमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे सर्वकालिक महानायकों से लेकर हनुमान, बुद्ध, महावीर, राजा भरत, राजा विक्रमादित्य, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोबिंद सिंह, रानी लक्ष्मीबाई, यज्ञ में संलग्न वैदिक ऋषि आदि प्रमुख हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि संविधान सभा के सदस्य 'सेक्युलरिज्म' के आज के झंडाबरदारों की तुलना में अधिक 'सेक्युलर' तथा नीति एवं नीयत को लेकर अधिक स्पष्ट एवं निष्पक्ष थे। क्या यह सत्य नहीं कि भारत अपनी मूल प्रकृति एवं स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष है?

 वस्तुतः 'सेक्युलरिज्म' एक ऐसी अवधारणा है, जिसे यूरोप से भारत में आयातित किया गया है। इस अवधारणा का जन्म यूरोप में मध्य युग में हुआ था, जब चर्च और राज्य सत्ता अपने-अपने प्रभाव एवं कार्य-क्षेत्र के लिए आपस में टकराए थे। वहां की परिस्थिति विशेष के लिए वह एक उचित समाधान रहा होगा, परंतु हमारे यहां कभी भी मजहबी राज्य नहीं था, न ही राज्य-सत्ता एवं धर्मसत्ता के मध्य कभी कोई टकराव ही देखने को मिला, इसलिए उस संदर्भ में सेक्युलरिज्म की बात ही अर्थहीन है।

हमारे देश में धर्माचार्यों के शासन की नहीं, बल्कि अनुशासन की परंपरा अवश्य रही है। धर्म को रिलीजन अथवा मजहब के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि धर्म समग्र जीवन-पद्धति से भी विशालतर अवधारणा है। यह एक ब्रह्मांडीय विचार है। यह वैविध्य में एकत्व देखने की अंतर्दृष्टि है। धर्म शब्द के मूल में 'धृ' धातु है, जिसका संबंध धारण करने से है। धर्म वस्तु और व्यक्ति में सदा रहने वाली सहज वृत्ति, प्रकृति अथवा गुण का द्योतक है। धर्म कर्तव्य के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। धर्म उन व्यवस्थाओं अथवा नियमों के समुच्चय का नाम है, जो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं मानव जीवन के विभिन्न अंगों को धारण किए रहता है। वहीं मजहब एवं रिलीजन का संबंध कुछ निश्चित आस्थाओं-मान्यताओं से होता है। जब तक कोई व्यक्ति उनको मानता है, वह उस 'रिलीजन' या 'मजहब' का सदस्य बना रहता है। ज्यों ही वह उन आस्थाओं-मान्यताओं को छोड़ता है, वह उनसे बहिष्कृत हो जाता है। धर्म केवल आस्थाओं पर आधारित नहीं होता। किसी धार्मिक आस्था में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति भी धार्मिक अर्थात सद्गुणी हो सकता है। 'सेक्युलर' का अनुवाद 'धर्मनिरपेक्ष' किए जाने के कारण भी बहुत से भ्रम पैदा हुए। इसका अभिप्राय धर्म से उदासीन होना नहीं होता। हमें यह समझना होगा कि राजकीय समारोहों के उद्घाटन के अवसर पर दीप-प्रज्वलन की परिपाटी या नए जहाज के जलावतरण की मंगलमय बेला में नारियल तोड़कर प्रसन्नता प्रकट करना अथवा नवनिर्माण से पूर्व भूमि-पूजन कर धरती माता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना किसी उपासना पद्धति का भाग न होकर भारतीय संस्कृति और परंपरा का अंग है।

तमसो मा ज्योतिर्गमय' अंधकार से प्रकाश की ओर-यह मानव की प्रगति यात्रा का दिशानिर्देश है। चिरकाल से मनुष्य नन्हा सा दीप जलाकर अंधकार की सत्ता को चुनौती देता आया है। हम आलोकधर्मी संस्कृति के वाहक हैं। अंधकार किसी भी समूह, समाज अथवा समुदाय का अभीष्ट नहीं हो सकता, न ही होना चाहिए। धर्म जहां परिणामोन्मुखी एवं निर्देशात्मक होता है, वहीं सत्य वस्तुनिष्ठ होता है। यदि सत्य इस प्रश्न का उत्तर देता है कि 'क्या है' तो धर्म इस प्रश्न का उत्तर देता है कि 'क्या होना चाहिए।' धर्म संविधान में निहित न्याय, निष्पक्षता और समानता के अंतर्निहित मूल्यों को मजबूत करता है। यह सुनिश्चित करता है कि वैधानिक निर्णय न केवल विधिसम्मत हों, अपितु नैतिक कसौटी पर भी खरे उतरने वाले हों। संविधान जहां देश के सर्वोच्च कानून के रूप में कार्य करता है, वहीं धर्म नैतिक दिशा-निर्देश प्रदान कर इसके अनुप्रयोग को बढ़ाता है। यह कानूनी व्याख्या एवं निर्णय लेने में सहायक एवं मार्गदर्शक भूमिका निभाता है। धर्म को विधिक प्रक्रिया, तर्क एवं व्याख्या में सम्मिलित कर न्यायाधीश नैतिक दुविधाओं को संबोधित एवं जटिल मुद्दों को हल कर सकते हैं। इस प्रकार 'धर्म एवं संविधान' तथा 'धर्म एवं सत्य' में परस्पर विरोध या टकराव न होकर सहयोग एवं पूरकता का भाव निहित हैं i

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