दो महान स्वामी भक्त अश्व ( घोड़ों ) की वीर गाथा चेतक *और शुभ्रक

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राजेश कुमार यादव की कलम से

 महान अश्व चेतक

हल्दीघाटी के युद्ध में बिना किसी सैनिक के राणा अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो कर पहाड़ की ओर चल पडे‌. उनके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने अपना पराक्रम दिखाते हुए रास्ते में एक पहाड़ी बहते हुए नाले को लाँघ कर प्रताप को बचाया जिसे मुग़ल सैनिक पार नहीं कर सके.

चेतक द्वारा लगायी गयी यह छलांग इतिहास में अमर हो गयी इस छलांग को विश्व इतिहास में नायब माना जाता है.

चेतक ने नाला तो लाँघ लिया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती जा रही थी पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ रही थी उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी, ‘नीला घोड़ा रा असवार’ प्रताप ने पीछे पलटकर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था,

 उनका सगा भाई शक्तिसिंह. प्रताप के साथ व्यक्तिगत मतभेद ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ता था. जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, परन्तु केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए. जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले थे.

इस बीच चेतक इमली के एक पेड़ तले गिर पड़ा, यहीं से शक्तिसिंह ने प्रताप को अपने घोड़े पर भेजा और वे खुद चेतक के पास रुके. चेतक लंगड़ा (खोड़ा) हो गया, इसीलिए पेड़ का नाम भी खोड़ी इमली हो गया. कहते हैं, इमली के पेड़ का यह ठूंठ आज भी हल्दीघाटी में उपस्थित है.

 महान अश्व  शुभ्रक

कुतुबुद्दीन ऐबक घोड़े से गिर कर मरा, यह तो सब जानते हैं, लेकिन कैसे?

 यह आज हम आपको बताएंगे..

वो वीर महाराणा प्रताप जी का ‘चेतक’ सबको याद है,

लेकिन ‘शुभ्रक’ नहीं!

तो मित्रो आज सुनिए कहानी ‘शुभ्रक’ की…..

सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और उदयपुर के ‘राजकुंवर कर्णसिंह’ को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।

कुंवर का ‘शुभ्रक’ नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,

 जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।

एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई.. और सजा देने के लिए ‘जन्नत बाग’ में लाया गया। यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे ‘पोलो’ (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा…

 राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।

सिर पर हाथ रखते ही ‘शुभ्रक’ का निष्प्राण शरीर लुढक गया..

 भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं! जबकि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

नमन स्वामीभक्त ‘शुभ्रक’ को..

कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े ‘शुभ्रक’ पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ ‘जन्नत बाग’ में आया।

‘शुभ्रक’ ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, तो ‘शुभ्रक’ से रहा नहीं गया..

 उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए! इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए…

मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और ‘शुभ्रक’ पर सवार हो गए। ‘शुभ्रक’ ने हवा से बाजी लगा दी.. लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!

 राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।

सिर पर हाथ रखते ही ‘शुभ्रक’ का निष्प्राण शरीर लुढक गया..

 भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं! जबकि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

नमन स्वामीभक्त ' चेतक ' और  ‘शुभ्रक’ को.

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