किसान आन्दोलन और मोदी सरकार

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राजेश कुमार यादव हेड एडिटर व   साधना सिंह विधि संवाददाता वाराणसी की कलम से

 इसे भी एक प्रकार का अजीब संयोग ही कहा जाएगा कि एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न देकर मोदी सरकार ने अपने आप को किसान हितैषी बताने का संदेश दिया था, अब उन्हीं एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट को लागू करने की मांग लेकर पंजाब के किसान दिल्ली कूच कर चुके हैं।

निश्चित रूप से यह मोदी सरकार के लिए बहुत दुविधापू्र्ण स्थिति है। संसद की कार्रवाही समाप्त हो चुकी है और सरकार चुनावी मोड में आ गयी है। खुद मोदी की ओर से अपनी तीसरी जीत के दावे बढ़ चढकर किये जा रहे हैं और ठीक ऐसे ही समय में पंजाब के कुछ हजार आंदोलनकारी किसान किसी भी कीमत पर दिल्ली पहुंचकर अनिश्चित काल के लिए धरना देना चाहते हैं।

पबार वाले आंदोलन की तरह इस बार भी उनकी लंबी तैयारी है। यानी कम से कम मई जून में नयी सरकार बनने तक वो दिल्ली में डेरा डालना चाहते हैं। सवाल सिर्फ डेरा डालने, धरना देने तक का होता तो शायद मोदी सरकार के लिए यह उतनी चिंता की बात नहीं होती। लेकिन ऐसे में जब आमचुनाव सिर पर हैं तब दिल्ली या दिल्ली के बार्डर पर भी किसान धरने पर बैठा हो तो अच्छा संदेश नहीं जाएगा। वह भी ऐसे किसान जिनमें न सिर्फ कटारधारी सरदार शामिल हैं बल्कि बरछी तलवार लहराता निहंगों का जत्था भी चला आ रहा है।

पिछले किसान आंदोलन की हिंसा को देखते हुए यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि इस बार भी वो शांतिपूर्ण प्र्शन ही करेंगे। अगर ऐन चुनाव के दौरान किसान संगठन के लोग तथा निहंग उपद्रव करते हैं तो प्रशासन की क्या दशा होगी? वह चुनाव संभालेगा या किसान आंदोलन? संभवत: इसीलिए केन्द्र सरकार के तीन मंत्री संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं से वार्ता कर रहे थे। लेकिन कोई समाधान नहीं निकला तो 13 फरवरी की तय तारीख पर संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधियों ने दल बल के साथ दिल्ली के लिए कूच कर दिया।

पंजाब से निकले किसान हरियाणा के अलग अलग बार्डर पर दिल्ली पहुंचने का हिंसक संघर्ष कर रहे हैं। मंगलवार को अंबाला के शंभू बार्डर पर दिल्ली कूच कर रहे प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प भी हुई है। 2020 में अपने हिंसक और उग्र प्रदर्शन से दिल्ली की सीमाओवाप लालकिले को पहले भी दहला चुके पंजाब के किसानों ने इस बार भी तय कर रखा है कि जब तक उनकी सारी "मांगे" पूरी नहीं हो जाती वोहैटकर वापस नहीं जाएंगे। इसलिए कम से कम 6 महीने दिल्ली में डेरा डालने की तैयारी के साथ वो आगे बढ़ रहे हैं।

अपने पहले अनुभव स प्रशासन अलर्ट है इसलिए उनको हरियाणा बार्डर पर ही घेरकर रखने की हर संभव कोशिश कर रहा है। हरियाणा के कई जिलों में इंटरनेट बैन कर दिया गया है और 70% पुलिस अलर्ट मोड पर है। सड़कों पर जिस तरह से बैरिकेडिंग की जा रही थी, टायर पंचर करनेवाले उपकरण लगाये जा रहे हैं और कंक्रीट की दीवार खड़ी की जा रही है उसे देखकर लगता है कि प्रशासन किसानों से नहीं जंगजू पहलवानों से निपटने का इंतजाम कर रहा है।

प्रशासन द्वारा किये जानेवाले ऐसे उपाय गलत भी नहीं हैं। जिस प्रकार की तैयारी े साथ ये कथित किसान दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं, वह शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन करने भर की तैयारी नहीं है। हथौड़ा से लेकर बुलडोजर तक उनके साथ है। उनके लोग भी मानों दिल्ली धरना देेने नहीं बल्कि दिल्ली से जंग लड़ने के लिए निकले हैं। प्रशासन और कथित किसान में कौन कामयाब होगा यह तो समय बतायेगा लेकिन जिस तरह की मांग संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा सामने रखी गयी है उसे देखकर तो नहीं लगता कि सरकार और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच कोई बात बनेगी।

इन मांगों का निर्धारण भी मानों इस प्रकार से किया गया है कि दिल्ली जा रहे हैं तो कोई न कोई बहाना तो होना ही चाहिए। मामला सिर्फ एमएसपी की गारंटी तक का नहीं है। पंजाब में फसलों पर एमएसपी की ही राजनीति होती है। वहां खेती किसानी पेट भरने का साधन नहीं बल्कि व्यापार है जिसमें अधिक से अधिक अन्न उपजाकर सरकार को बेचना होता है। इससे पंजाब की क्या दुर्दशा हुई है यह एक अलग कहानी है लेकिन क्योंकि किसानी एक व्यापार है इसलिए वहां जैसी किसान राजनीति होती है, देश में कहीं नहीं होती।

इसलिए पंजाब के संयुक्त किसान मोर्चा ने अपनी जायज/नाजायज मांगों की एक लिस्ट तैयार की है जिस पर अमल करना किसी भी सरकार के लिए संभव ही नहीं है। मसलन, हर बुजुर्ग किसान को दस हजार महीना पेंशन दिया जाए और किसानों का सारा कर्जा माफ किया जाए। समस्या यह है कि कोई भी सरकार यह निर्धारित ही नहीं कर सकती कि किसान कौन है। अधिक से अधिक उसके पास एक आधार है कि उसके नाम की जमीन होनी चाहिए। लेकिन जिनके नाम की जमीन है वो खेती ही करता है इसको कैसे सुनिश्चित किया जाएगा?

संयुक्त किसान मोर्चा के तहत जो लोग दिल्ली आ रहे हैबंो अपने आपको गैर राजनीतिक संगठन कह रहे हैं। 2020-21 में पिछले किसान आंदोलन के बाद जब पंजाब लौटे तो इस बात पर ही बंट गये कि 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ना है या नहीं लड़ना है। इसमें बलबीर सिंह राजेवाल पांच किसान संगठनों के साथ अलग हो गये और चुनाव मैदान में उतर गये। हालांकि वो और उनके उम्मीदवार चुनाव हार गये इसलिए इस बार उनके संगठन इस आंदोलन से अलग हैं। उस समय किसान आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभानेवाले लोग भी इसमें शामिल नहीं है। जो लोग दिल्ली आने का प्रयास कर रहे हैं वो अपने आप को गैर राजनीतिक घोषित कर रहे हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने जिस भारतीय किसान यूनियन की स्थापना की थी, उसका प्रभाव जाट बहुल इलाकों में अच्छा खासा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में भारतीय किसान युनियन की पैठ हो गयी थी। महेन्द्र सिंह टिकैत जब इसके अध्यक्ष बने तो उनकी और इस किसान संगठन की धाक और अधिक बढी, लेकिन उनके मरने के बाद यह यूनियन ही इतने धड़ों में बंट चुकी है कि कौन किसके साथ है और कौन खिलाफ है इसका पता लगाना ही मुश्किल है। टिकैत के दोनों बेटे इस बार आंदोलन से अलग हैं। राकेश टिकैत जरूर मीडिया में बयानबाजी कर रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आंदोलन में उनको भी शामिल नहीं किया गया है।

इन किसान संगठनों की आपसी राजनीति और फूट वैसी ही है जैसी किसी राजनीतिक पार्टी में होती है। इसलिए यह कहना कि कुछ किसान संगठन मिलकर दिल्ली आ रहे हैं तो वो किसानों के हित की बात करेंगे, विश्वास करना थोड़ा कठिन है। किसानों का कोई संगठन बनाकर चला लेना किसी सीमित क्षेत्र में तो संभव है लेकिन व्यापक रूप से हर क्षेत्र के किसान का प्रतिनिधित्व करना असंभव है। भारत के ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाला हर वो व्यक्ति किसान है जिसके परिवार के पास थोड़ी बहुत भी जमीन है।

इसलिए जो संगठन दिल्ली कूच करने के लिये अपना शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं वो खेत से जुड़े उन किसानों को ही बदनाम कर रहे हैं जो मेहनत करके अपना और पूरे जीव जगत का पेट भरता है। उनके इस हिंसक व्यवहार के कारण शहरों में बैठे लोग किसानों को ही गाली दे रहे हैं क्योंकि इसकी वजह से उनकी अपनी जिन्दगी में रुकावट पैदा हो रही है। अच्छा हो कि संयुक्त किसान मोर्चा इन बातों को समझे और ऐन चुनाव के मौके पर शक्ति प्रदर्शन से बचे। अगर वह अपने आप को अराजनीतिक कहता है तो किसान के नाम पर राजनीति भी न करे। इससे किसानों का हित हो न हो, बदनामी जरूर होगी।

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