राजेश कुमार यादव की कलम से
सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को सुनाए अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा जारी किये गये इलेक्टोरल (चुनावी) बॉण्ड्स योजना पर रोक लगा दी है। यह निर्णय संविधानसम्मत होने के साथ जनअपेक्षाओं के अनुरूप भी है। कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को भी आदेश दिया है कि वह 6 मार्च, 2024 तक उन सभी राजनीतिक दलों के नाम व प्राप्त राशि निर्वाचन आयोग को बतलाये जिन्होंने इस योजना का लाभ उठाया है और इस जानकारी को आयोग 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर साझा करे। इससे ज़ाहिर होगा कि किस दल ने किससे और कितनी राशि प्राप्त की है। इस तरह सूचना के अधिकार की रक्षा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पारदर्शिता एवं चुनावी सुधार की चारों दिशाओं के क्षितिजों का स्पर्श करने वाला यह निर्णय संसदीय प्रणाली के शुद्धिकरण की राह में मील का पत्थर कहा जा सकता है।
इस योजना की वैधता को
चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए प्रमुख न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय बेंच ने एकमत से इसे असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि यह सूचना के अधिकार के नियम का उल्लंघन है। उल्लेखनीय है कि भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने 2017 में यह योजना एक वित्त अधिनियम के रूप में लोकसभा से पारित कराई गई थी, जिसे 29 जून, 2018 को कानूनन लागू किया गया था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से कोई भी नागरिक इस बॉण्ड को ख़रीदकर अपने पसंदीदा दल को चंदे के रूप में दे सकता था। इसे एक तरह से राजनीतिक दलों की गुमनाम तरीके से मदद करना भी कहा जा सकता है।
इस योजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि वोटर को यह जानने का हक है कि राजनीतिक दलों के पास धन कहां से आ रहा है। उसने यह भी कहा कि यह योजना नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है, जिसके कारण संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है। सुनवाई के दौरान सरकार की दलील थी कि इससे राजनैतिक दलों की फ़ण्डिंग में काले धन का इस्तेमाल रुकेगा तथा फ़ण्डिंग साफ़-सुथरी होगी। कोर्ट ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि उसके दूसरे तरीके भी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जानकारी जनता को न देने की सरकार के अटॉर्नी जनरल की यह दलील ख़ारिज कर दी जिसमें कहा गया कि उचित प्रतिबन्धों के अधीन हुए बिना ‘कुछ भी’ और ‘सब कुछ’ जानने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि इस योजना में किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया। इस तरह सरकार ने इसे जनता की पहुंच से दूर रखा है जिसके कारण इसकी विश्वसनीयता एवं पारदर्शिता दोनों ही संदेहों के घेरे में रही। इस योजना के नियमों के अनुसार एसबीआई की निर्दिष्ट शाखाओं से 1 हज़ार, 10 हज़ार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपए तक के बॉण्ड्स खरीदे जा सकते हैं। इसकी वैधता 15 दिनों की है जिस अवधि में जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत पंजीकृत एवं पिछले चुनाव में कम से कम 1 प्रतिशत वोट पाने वाले दलों को प्राप्त सहयोग राशि का इस्तेमाल करना ज़रूरी है।
इस बाबत कई वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटियों तथा चुनावी सुधार के पक्षधरों ने आरोप लगाया था कि इसके माध्यम से कार्पोरेट घराने, व्यवसायी एवं वे लोग जो सरकारों से अपने काम कराना चाहते हैं, ये बॉण्ड्स ख़रीदकर राजनीतिक दलों से नज़दीकियां बढ़ा सकते हैं। इस बात पर इसलिये सहज विश्वास किया जा सकता है क्योंकि भाजपा सरकार की कारोबारी व उद्योग जगत से नज़दीकियां ज्ञात हैं। बाद में यह बात सही भी साबित हुई क्योंकि भाजपा को सबसे ज्यादा चंदा प्राप्त हुआ- करीब 53 सौ करोड़ रुपये। लोग जानना चाहते हैं कि चंदा देने वाले कौन हैं और उन्होंने कितना चंदा दिया है। इन्हीं शंकाओं के साथ सुप्रीम कोर्ट को दो याचिकाएं प्राप्त हुई थीं। एक तो थी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (2017) की एवं दूसरी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (2018) ने दाखिल की थी। इन दोनों में ही कहा गया कि इससे देशी-विदेशी चंदे की बाढ़ आ जायेगी जिसके जरिये चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बनाया जायेगा। इसे रिश्वतखोरी भी कहा गया।
इस योजना के कारण भाजपा ने जो सम्पत्ति बटोरी है उसके कारण उसे चुनाव लड़ने में विरोधी दलों के मुकाबले बढ़त मिल जाती है। भाजपा को मिली उपरोक्त राशि के मुकाबले मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को केवल 952 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को लगभग 768 करोड़ तथा एनसीपी को सिर्फ 63.75 करोड़ रुपए मिले हैं। सही है कि इलेक्टोरल बॉण्ड्स योजना से कमोबेश अनेक दल लाभान्वित हुए हैं लेकिन माना जाता है कि इस फ़ैसले से सबसे ज्यादा अड़चन भाजपा को ही होगी क्योंकि यह निर्णय ऐसे वक्त पर आया है जबकि लोकसभा के चुनाव कुछ ही महीनों की दूरी पर हैं। नरेन्द्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिये बेताब भाजपा ने इस बार खुद के लिये 370 और अपने गठबन्धन (एनडीए) के साथ मिलकर 4 सौ पार का नारा दिया है।
ज़ाहिर है कि लगभग सभी मोर्चों पर नाकाम मोदी-भाजपा ने जब यह लक्ष्य बनाया होगा तब केवल उनकी कथित लोकप्रियता इसका आधार नहीं रही होगी। बड़ी संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये भाजपा को बड़ी धन राशि चाहिये, जो उसकी प्रमुख ताक़त है। जानकारी सार्वजनिक होने से उजागर हो जायेगा कि भाजपा के मददगार कौन हैं और भाजपा ने उनके चंदे के एवज में उन्हें क्या लाभ पहुंचाया है। यह भी देखना होगा कि मोदी व भाजपा इस बात के क्या उपाय करते हैं कि शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले को न माना जाये, जो सीधे तौर पर उसके चुनावी हितों के खिलाफ है। इसकी कोई भी कसर भाजपा छोड़ने वाली नहीं है।