राजेश कुमार यादव की कलम से
बीते कुछ दिनों से राम मंदिर के विरोध में रहनेवालों को एक नया मुद्दा मिल गया है कि जब शंकराचार्य ही अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा में नहीं जा रहे हैं तो फिर वहां किसी और के जाने का या न जाने का क्या औचित्य रह जाता है।
ऐसे लोग शायद यह बिल्कुल नहीं जानते कि शंकराचार्य कभी किसी मंदिर में प्रवेश नहीं करते, न ही वो मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं और न ही उसमें शामिल होते हैं।
शंकराचार्य पद पर आसीन सन्यासी मंदिर में प्रवेश नहीं करते। आपने कभी देखा या सुना नहीं होगा कि शंकराचार्य ने वैष्णव मंदिर छोड़िये, किसी शीव मंदिर में जाकर ही पूजा पाठ किया हो। जब वो मंदिर में जाकर पूजा पाठ तक नहीं कर सकते तो भला किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में कैसे जा सकते हैं?
असल में शंकराराचार्य पद पर सिर्फ सन्यासी आसीन होते हैं और उन पर एक सन्यासी से जुड़े सभी नियम लागू होते हैं। मंदिर गृहस्थ लोगों के लिए होता है इसलिए उसकी स्थापना, प्राण प्रतिष्ठा या फिर पूजा पाठ सब गृहस्थ के हाथ से ही होता है। हां, गृहस्थ विवाहित होना चाहिए। उसका जनेऊ संस्कार होना चाहिए। उसकी पत्नी अगर उस समय में उसके साथ नहीं है तो उसका रास्ता निकाला जा सकता है लेकिन जीवन के 16 संस्कारों में विवाह का संस्कार पूर्ण कर चुका व्यक्ति ही किसी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का अधिकारी होता है।
जो सन्यासी शंकराचार्य पद पर आसीन होते हैं वो मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए मात्र अपना आशीर्वाद देते हैं। सन्यासी के नियम ऐसे कठोर होते हैं कि वो धरती के चल देवता बन जाते हैं। उनकी महिमा या प्रतिष्ठा चल देव की होती है। जैसे मंदिर में स्थापित मूर्तियां स्थिर देवता होते हैं वैसे ही सन्यास लेने वाले व्यक्ति चल देवता होते हैं। इनकी महिमा देवता से कम नहीं है। इन सन्यासियों में शंकराचार्य सर्वोच्च शिखर पर आसीन रहते हैं। दक्षिण, पश्चिम, पूर्व और उत्तर आमनाय के चार शंकराचार्य आदि शंकराचार्य द्वारा निर्मित धर्म व्यवस्था के सर्वोच्च आसन पर विराजमान होते हैं।
एक सामान्य गृहस्थ उनसे वाद विवाद नहीं कर सकता। वह उनसे प्रश्न तो पूछ सकता है लेकिन उसका उत्तर शंकराचार्य अपनी इच्छा के अनुसार ही देते हैं। जब उनकी इच्छा हो तो वह समाज की भलाई के लिए उपदेश कर सकते हैं अथवा उनकी ओर से संदेश प्रसारित किया जा सकता है। वे गृहस्थ की किसी व्यवस्था के अधीन नहीं होते इसलिए उन्हें धरती के चलते फिरते देवता की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि भला एक देवता दूसरे देवता की प्राण प्रतिष्ठा में क्यों जाएगा?
इतना ही नहीं शंकराचार्य का जनेऊ संस्कार नहीं होता। वो जुते हुए खेत में प्रवेश नहीं कर सकते। वो गृहस्थ के घर में प्रवेश नहीं कर सकते। उनके शरीर को कोई भी व्यक्ति स्पर्श नहीं कर सकता। उन्हें निरंतर साधना तपस्या से अपने आपको पवित्र रखना होता है। वो अपनी साधना, तपस्या, अध्ययन, उपासना से अपनी दैवीय आभा को बचाये रखते हैं ताकि उनके दर्शन मात्र से लोक का कल्याण होता रहे। ठीक वैसे ही जैसे किसी देवमूर्ति के दर्शन से मनुष्य का कल्याण होता है।
साधकों के लिए स्वयं आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने साधना पंचकम लिखा था। इस साधना पंचकम के पांच श्लोकों में किसी धर्मानुरागी साधक के लिए कुल चालीस उपदेश किये गये हैं। कोई और पालन करें न करे लेकिन शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठ पर बैठे शंकराचार्य इस साधना अनुशासन का पालन करते हैं। इस साधना पंचकम में जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने जो नियम बताये हैं उनमें से प्रमुख है वेदों का अध्ययन। इसलिए जो चार शंकरपीठ हैं उनमें हर पीठ का अपना वेद नियत है।
पूर्व आमनाय के शंकराचार्य पुरी में विराजते हैं जिनके लिए ऋगवेद नियत है। पश्चिम आमनाय के शंकराचार्य द्वारका में विराजते हैं और उनके लिए सामवेद नियत है। उत्तर आमनाय के शंकराचार्य बद्रीनाथ में विराजते हैं और उनके लिए अथर्ववेद नियत है जबकि दक्षिण आमनाय के शंकराचार्य श्रृंगेरी में विराजते हैं और उनके लिए यजुर्वेद नियत है। अर्थात हर पीठ का वेद नियत है। इसलिए शंकराचार्य पद पर आसीन सन्यासी को वेद में पारंगत होना होता है।
वेदाध्यन के अतिरिक्त नित्य के कर्मों को ईश्वर में समर्पित करने का निर्देश साधना पंचकम में आदिशंकराचार्य देते हैं। मन की इच्छाओं का त्याग कर दें। हृदय के पापों को धो डालें। निरंतर प्रयास से स्वयं की खोज जारी रखे। घर के बंधन से बचे। सुख दुख के अनुभव से अपने आपको मुक्त करे। हर प्रकार की विपरीत परिस्थितियों को सहन करे।
इस तरह चालीस प्रकार के निर्देश साधना पंचकम में आदि जगतगुरु देते हैं जिसमें एक निर्देश यह भी है अपने आपको ब्रह्म के रूप में अनुभूति करे। ऐसे में जब शंकराचार्य अपने भीतर ही ब्रह्म का अनुभव और जागरण करते हैं तब इस पद पर आसीन सन्यासी किसी मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश नहीं करते। वो अपना समस्त पूजन पाठ अपने मठ में ही करते हैं।
हालांकि पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती महाभाग ने यह कहकर माहौल में गर्मी ला दी थी कि जब प्रधानमंत्री प्राण प्रतिष्ठा करेंगे तो क्या वो वहां बैठकर ताली बजायेंगे। इसके बाद से उनका यह बयान विवाद का कारण बन गया। लेकिन इसके बावजूद भी किसी शंकराचार्य ने वहां जाने या न जाने की बात इसलिए नहीं की क्योंकि वो जानते हैं कि मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने की उन्हें शास्त्रीय और परंपरागत अनुमति नहीं है। फिर भी इस मौके पर सभी शंकराचार्यों ने अपना शुभाशीष प्राण प्रतिष्ठा के लिए प्रेषित किया है।
यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि राम मंदिर आंदोलन के समय में सभी शंकराचार्यों ने अपना योगदान दिया है। धर्मसभा से लेकर साधु संत तथा समाज को उनके आशीर्वाद का ही परिणाम है कि आज अयोध्या में राम मंदिर का स्वप्न साकार हो रहा है। किंचिंत मात्र भी उन पर किसी प्रकार का दोषारोपण स्वयं अपने धर्म और समाज पर ही दोषारोपण होगा।