पीड़ितों, चश्मदीदों या पुलिस सहित कोई भी व्यक्ति, जिसे अपराध की जानकारी हो, एफआईआर दर्ज करा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

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रिपोर्ट राजेश कुमार यादव

प्रयागराज

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 154 और 155 को एक साथ पढ़ते हुए कहा कि अपराध के बारे में जानकारी रखने वाले किसी भी व्यक्ति को एफआईआर दर्ज करने का अधिकार है।

अदालत ने कहा,

"इसमें न केवल पीड़ित या प्रत्यक्षदर्शी शामिल है, बल्कि कोई भी व्यक्ति जो अपराध का संज्ञान लेता है, यहां तक कि स्वयं पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं।"

जस्टिस विवेक कुमार बिड़ला और जस्टिस विनोद दिवाकर की खंडपीठ ने कहा,

 “एफआईआर दर्ज करने के अधिकार की सार्वभौमिकता यह मूलभूत सिद्धांत है, जो यह सुनिश्चित करता है कि आपराधिक न्याय प्रणाली संभावित आपराधिक कृत्यों के बारे में जानकारी रखने वालों के लिए सुलभ रहे। यह समावेशिता शिकायतकर्ताओं, जिनमें पीड़ित प्रत्यक्षदर्शी और यहां तक कि कानून प्रवर्तन अधिकारी भी शामिल है, इनको प्रक्रिया शुरू करने और अपराध रिपोर्टिंग के लिए सहयोगात्मक और व्यापक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने का अधिकार देती है।"

 अदालत ने अजय राय द्वारा दायर आपराधिक रिट याचिका खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसमें आईपीसी की धारा 409 के तहत उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर की वैधता और शुद्धता को चुनौती दी गई।

पूरा मामला

अभियोजन पक्ष का मामला यह था कि सिखड़ी समिति में अतिरिक्त जिला सहकारी अधिकारी द्वारा निरीक्षण के दौरान कार्यवाहक सचिव यानी याचिकाकर्ता को कुछ अवैध कार्यों में लिप्त पाया गया, जिसके कारण उन्हें निलंबित कर दिया गया।

 इसके बाद 23 नवंबर, 2022 के आदेश के तहत उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम 1965 (Uttar Pradesh Co-operative Societies Act) की धारा 66 को लागू करके तीन सदस्यीय समिति द्वारा विस्तृत जांच की गई। जांच के निष्कर्षों से पता चला कि याचिकाकर्ता ने 16,17,833/ रुपये की राशि का दुरुपयोग किया। इसके बाद उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई।

 एफआईआर को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने हाइकोर्ट में दलील दी कि एफआईआर का रजिस्ट्रेशन सरकारी आदेश दिनांक 16-8-2000 का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया कि ऐसे मामलों में क्षेत्रीय उपायुक्त, सहकारिता वाराणसी को एफआईआर दर्ज करने का अधिकार है। इस मामले में आक्षेपित एफआईआर अपर जिला सहकारी अधिकारी, जखनिया, ग़ाज़ीपुर की शिकायत के आधार पर रजिस्टर किया गया।

यह भी तर्क दिया गया कि विवादित एफआईआर (1965 अधिनियम की धारा 103 और 105 के आदेश के बाद) के रजिस्ट्रेशन से पहले रजिस्ट्रार, सहकारी से अपेक्षित अनुमोदन प्राप्त नहीं किया गया।

 दूसरी ओर, राज्य के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए, जो एफआईआर और जांच रिपोर्ट में स्पष्ट हैं, जो संज्ञेय अपराध की सामग्री को स्थापित करते हैं।

कोर्ट की टिप्पणी

 न्यायालय ने एफआईआर के महत्व पर जोर दिया, इसे आपराधिक न्याय के क्षेत्र में अनिवार्य दस्तावेज कहा "जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत को चिह्नित करता है और कथित अपराधों की बाद की जांच की सुविधा प्रदान करता है।"

सीआरपीसी की धारा 154 और 155 के आदेश का उल्लेख करते हुए, जो एफआईआर दर्ज करने की प्रक्रिया और अधिकार को चित्रित करता है, न्यायालय ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 154 "उस तत्कालता और अनिवार्यता को समाहित करती है, जिसके साथ अपराधी को स्थापित करने के लिए एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए।"

कोर्ट ने आगे कहा कि संज्ञेय अपराध के बारे में जानकारी रखने वाले किसी भी व्यक्ति को एफआईआर दर्ज करने का अधिकार है, जिसमें न केवल पीड़ित या प्रत्यक्षदर्शी बल्कि अपराध का संज्ञान लेने वाला कोई भी व्यक्ति शामिल है।

इस मामले में याचिकाकर्ता के इस तर्क के संबंध में कि उपयुक्त प्राधिकारी ने उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की, अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में सहायक आयुक्त-सह-सहायक रजिस्ट्रार, सहकारी ने अपना अधिकार अतिरिक्त को सौंप दिया। जिला सहकारी अधिकारी को एफआईआर दर्ज करनी होगी। इसलिए याचिकाकर्ता के तर्क में कोई कानूनी ताकत नहीं है और इस प्रकार यह गलत है।

न्यायालय ने आगे रेखांकित किया कि उन्होंने प्रशासनिक न्यायशास्त्र में प्रत्यायोजित कानून की अवधारणा और ललिता कुमारी बनाम यूपी राज्य मामले से प्राप्त मार्गदर्शक सिद्धांतों की संयुक्त जांच से स्पष्ट किया कि सहायक आयुक्त या अतिरिक्त जिला सहकारी अधिकारी द्वारा एफआईआर का रजिस्ट्रेशन अप्रासंगिक है और “महत्वपूर्ण विचार यह निर्धारित करने में निहित है कि क्या एफआईआर की सामग्री सही है।”

चीजों को और भी स्पष्ट करने के लिए न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि उत्तर प्रदेश सहकारी सोसायटी अधिनियम 1965 एफआईआर दर्ज करने की विशिष्ट प्रक्रिया पर मौन है। इसलिए सोसायटी फंड के गबन और किसानों से ऋण की अवैध वसूली से जुड़े मामलों में न्यायालय ने कहा इस संबंध में सामान्य कानूनी सिद्धांत लागू होंगे।

अंत में मामले के तथ्यों की ओर मुड़ते हुए 16,17,833.00 रुपये की राशि के गबन के गंभीर आरोप लगाए गए, जिसे कथित तौर पर समिति के कार्यवाहक सचिव और तीन सदस्यीय समिति द्वारा गरीब किसानों से अवैध रूप से एकत्र किया गया और एफआईआर के बाद गबन का निर्णायक निर्धारण हुआ।

इसे देखते हुए इस समिति के निष्कर्षों, जो कि विवादित एफआईआर के आधार के रूप में कार्य करता है,पर विवाद करने का कोई ठोस कारण नहीं पाते हुए न्यायालय ने रिट याचिका खारिज कर दी।

केस टाइटल - अजय राय बनाम यूपी राज्य और 4 अन्य।

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